वर्ष में दो बार नव रात्र में देवी के विभिन्न रूपों की आराधना और नवमी वाले दिन कन्याओं को श्रद्धापूर्वक भोजन करा कर, देवी समान मानते हुए उनका पूजन करना, उनको भेंट अर्पण करके विदा करना सनातन काल से चली आ रही हिन्दू परम्परा है जिसका निर्वहन आज भी घर – घर में हो रहा है। परंपरा भले ही अक्षुण्ण हो पर अब और कितने वर्ष चल पायेगी, यह कहना कठिन है। कारण है – अधिकांश हिन्दू परिवारों में कन्याओं के जन्म को लेकर होने वाली हाय-तौबा! पहले तो कन्याओं को जन्म लेने ही नहीं दिया जाता । अल्ट्रासाउंड परीक्षण द्वारा सबसे पहले यह जांच पड़ताल करा ली जाती है कि गर्भ में बालक है या बालिका। यदि बालिका हो तो उसे गर्भ में ही मार डालने की योजना तुरन्त बना ली जाती है। यदि भ्रूण हत्या किसी वज़ह से संभव न हो पा रही हो तो बालिका के जन्म लेते ही घर की महिलाएं – सास, जेठानी, ननद आदि प्रसूता के प्रति ऐसा लज्जाजनक व्यवहार करने लगती हैं मानों उसने कन्या को नहीं, किसी मेंढकी को जन्म दे दिया हो। नारी ही नारी की दुश्मन बन जाती है। आश्चर्य तो यह है कि यह सब उस समाज में हो रहा है जिसमें कभी ’यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ का संदेश जन-जन में प्रवाहित होता था। नारी की हेय स्थिति के लिये पुरुषप्रधान मानसिकता को दोषी ठहराना किस हद तक सत्य है, कहना मुश्किल ही है क्योंकि महिलाओं के प्रति घरों में ज्यादा अत्याचार महिलाओं द्वारा ही किये जाते हैं, खास तौर पर इमोशनल अत्याचार !
कन्या पूजन के लिये जब पूरे मुहल्ले में ढूंढ़ ढूंढ कर भी नौ कन्याएं जुटाना मुश्किल पड़ने लगता है तो बालकों को ही निमंत्रित कर लिया जाता है कि चलो भई, तुम ही आ जाओ ! कुछ वर्षों तक ऐसे ही चलता रहा तो इतिहास की पुस्तकों में पढ़ने को मिलेगा कि प्राचीन काल में नवरात्रों में कन्याओं का पूजन हुआ करता था पर बाद में नारी जाति धीरे – धीरे समाप्त हो गई तो पुरुषों का पूजन आरंभ हो गया ।
पर लाख टके का प्रश्न तो ये है कि यदि हर गर्भ में से लड़कियों का बोरिया – बिस्तर जन्म से पहले ही बांधा जाता रहा तो फिर लड़कों को पैदा करने के लिये मां कहां से आयेंगी ?
हम अपने पाठकों से जानना चाहेंगे कि वह इस बारे में क्या सोचते हैं?